वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है
अरे नहीं पूरे शहर का नहीं
बस उतना जितना मुनिसिपलिटी को दिखाई पड़ा है
वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है.........
रंग बिरंगे रंगों मे
पन्नी कागज कचरे मे
विचलित बदबूदार पड़ा है
वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है.........
कूडे के बीचों बीच इक
कूडे सा कूड़ेदान पड़ा है
और
सूअरों की नवदम्पति कापूरा इक परिवार पड़ा है
वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है.....
गाय चर रही घास वही पर
छोटे बच्चे वहीं खेलते
ताश खेलते वहीं लफंगे
और वहीं गोबर का अम्बार पड़ा है
वो देखो तुम्हारे पूरे शहर का कूड़ा पड़ा है
......
मैं जब बैठा कभी मनन मे सोचूंगा इस बारे मे
तो पाउँगा ख़ुद को उलझा भावों के भवसागर मे
नहीं जनता
क्या ये कविता केवल कूड़ाघर का वर्णन है
या कहीं
किसी गलती से मैंने छेड़ दिया है
इस समाज को
जो चाहे जैसा दिखता हो पर
ये भी इक कूड़ाघर है
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